दया – अशोक चकà¥à¤°à¤§à¤°
à¤à¥‚ख में होती है कितनी लाचारी,
ये दिखाने के लिठà¤à¤• à¤à¤¿à¤–ारी,
लॉन की घास खाने लगा,
घर की मालकिन में
दया जगाने लगा।
दया सचमà¥à¤š जागी
मालकिन आई à¤à¤¾à¤—ी-à¤à¤¾à¤—ी-
कà¥à¤¯à¤¾ करते हो à¤à¥ˆà¤¯à¤¾Â ?
à¤à¤¿à¤–ारी बोला
à¤à¥‚ख लगी है मैया।
अपने आपको
मरने से बचा रहा हूं,
इसलिठघास ही चबा रहा हूं।
मालकिन ने आवाज़ में मिसरी घोली,
और ममतामयी सà¥à¤µà¤° में बोली—
कà¥à¤› à¤à¥€ हो à¤à¥ˆà¤¯à¤¾
ये घास मत खाओ,
मेरे साथ अंदर आओ।
दमदमाता डà¥à¤°à¥‰à¤‡à¤‚ग रूम
जगमगाती लाबी,
à¤à¤¶à¥‹à¤†à¤°à¤¾à¤® को सारे ठाठनवाबी।
फलों से लदी हà¥à¤ˆ
खाने की मेज़,
और किचन से आई जब
महक बड़ी तेज,
तो à¤à¥‚ख बजाने लगी
पेट में नगाड़े,
लेकिन मालकिन ले आई उसे
घर के पिछवाड़े।
à¤à¤¿à¤–ारी à¤à¥Œà¤‚चकà¥à¤•à¤¾-सा देखता रहा
मालकिन ने और ज़à¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ पà¥à¤¯à¤¾à¤° से कहा—
नरà¥à¤® है, मà¥à¤²à¤¾à¤¯à¤® है। कचà¥à¤šà¥€ है
इसे खाओ à¤à¥ˆà¤¯à¤¾
बाहर की घास से
ये घास अचà¥à¤›à¥€ है !